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ओलम्पिक में फेंसिंग से भारत का नाम रौशन करने वाली पहली भारतीय महिला भवानी देवी

आज हम ओलम्पिक में तलवारबाज़ी में अपना अलग मुक़ाम बनाने वाली सी ए भवानी देवी की बात करने वाले हैं। 27 अगस्त 1993 को चेन्नई में जन्मी भवानी देवी ऐसी पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं जिन्होंने फेंसिंग में ओलम्पिक खेलों में क्वालिफ़ाई किया है। यही नहीं इस खेल में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला भी हैं।

ओलम्पिक में फेंसिंग या तलवारबाज़ी की शुरुआत 1896 से हुई थी और महिलाओं के लिए 1924 में इसकी शुरुआत की गयी। फेंसिंग की तीन तरह की प्रतिस्पर्धा ओलम्पिक में होती है जो तलवारों की आकृति और धार के कारण अलग- अलग रखी जाती हैं। इनमें फ़ॉइल (Foil), एपै (epee) और सीब (sabre) शामिल हैं। तलवार की धार को देखते हुए सीब सबसे मुश्किल कही जा सकती है इसमें चोट लगने की सम्भावना भी बाक़ी दो के मुक़ाबले ज़्यादा होती है। इसमें त्वरित प्रतिक्रिया और सतर्कता बहुत ज़रूरी होती है। यही वो प्रतिस्पर्धा है जिसमें भवानी देवी भाग लेती हैं।

एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी भवानी देवी के परिवार में वो अकेली हैं जिसने खेलों की ओर क़दम बढ़ाया। उनके पिता पुजारी हैं और माँ गृहणी हैं। पाँच भाइयों बहनों के बीच भवानी देवी सबसे छोटी हैं और उनके बड़े भाई बहन वकालत करते हैं। भवानी देवी का खेलों में आना और ख़ासकर फेंसिंग जैसे खेल को चुनने की कहानी भी दिलचस्प है। उन्होंने 11 साल की उम्र से ही इस ओर क़दम बढ़ा दिया था। दरअसल उन दिनों उनके स्कूल में सरकार की ओर से बच्चों को खेलों की ओर जागरूक करने के लिए कार्यक्रम चलाए जाते थे। जिसके कारण हर बच्चे को चार में से कोई दो खेल चुनने ही पड़ते थे। पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें उन खेलों की शिक्षा भी दी जाती थी।

भवानी देवी को तैराकी, स्क्वॉश, फेंसिंग और बॉक्सिंग के बीच में से किन्हीं दो का चुनाव करना था। भवानी देवी ने स्क्वॉश के साथ-साथ फेंसिंग को चुन लिया लेकिन बाद में दोनों की प्रतियोगिता एक ही दिन होने के कारण जब इन दो में से एक को चुनने की बारी आयी तो माँ के कहने पर फेंसिंग को चुना कयनोंकि उनकी माँ के मुताबिक़ ये एक नया खेल था जिसके उपकरण बिलकुल अलग थे। इसके बाद भवानी ने कभी मुड़कर नहीं देखा। साल 2004 में मात्र 11 साल की उम्र में ही भवानी देवी ने सब जूनियर नेशनल चैम्पियनशिप में अपना पहला स्वर्ण पदक जीता था।

इस समय तक वो फेंसिंग की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई से बैंगलोर चली गयी थीं जहाँ उन्हें किसी कोच ने नहीं बल्कि उनके सीनियर्स ने सिखाया। बावजूद इसके भवानी देवी दृढ़ निश्चय और अनुशासन के साथ अपने खेल में जुटी हुई थीं। 14 साल की उम्र में भवानी देवी अपने पहले अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए टर्की गयी थीं। यहाँ उन्हें सिर्फ़ तीन मिनट से चूकना पड़ा और सफलता नहीं मिली लेकिन जो अनुभव मिला वो आगे काम आया। 17 साल की उम्र में साल 2009 में भवानी देवी ने मलेशिया में हुए कॉमनवेल्थ चैम्पियनशिप में अपना पहला अन्तर्राष्ट्रीय पदक हासिल किया ये कांस्य पदक था। इसके अगले ही साल उन्होंने फ़िलिपींस में हुए एशियन चैम्पियनशिप में दूसरा कांस्य पदक हासिल किया।

इसके बाद लगातार पदक का सिलसिला चल निकला। 2014 में फ़िलिपींस में हुए एशियन चैम्पियनशिप में रजत पदक अपने नाम किया, ऐसा करने वाली वो पहली भारतीय हैं। वो कई कांस्य और रजत पदक ही नहीं बल्कि तीन बार स्वर्ण पदक भी अपने नाम कर चुकी हैं। 2012 में कॉमनवेल्थ चैम्पियनशिप और 2014 के टस्कैनि कप इटली में। भाग लेकर इन दोनों ही प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक अपने नाम किया। वहीं सीनियर कॉमनवेल्थ फेंसिंग चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीतकर एक बार फिर ऐसा करने वाली पहली भारतीय बन गयीं।

ये कहा जाता है कि जितना पसीना अभ्यास में बहाया जाता है उतना ही अच्छा नतीजा मैदान में देखने मिलता है। कुछ ऐसा ही रहा भवानी देवी के साथ भी, इस पूरी यात्रा में उन्हें कई कठिनाइयों से भी लोहा लेना पड़ा। घर की आर्थिक हालत इतनी मज़बूत नहीं थी कि उन्हें फेंसिंग जैसे खेल के लिए उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जा सकती। पहले वो बाँस की लकड़ियों से अभ्यास किया करती थीं लेकिन फेंसिंग के उपकरणों की ज़रूरत भी थी। ये उपकरण नाज़ुक भी होते हैं इसलिए इन्हें अभ्यास के दौरान इन्हें बार- बार लेना पड़ सकता है। ऐसे समय में सरकार की ओर से भी कुछ सहायता मिली और परिवार ने भी पूरा सहयोग किया।

भवानी के बारे में उनके जानने वाले यही कहते हैं कि चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी रहीं भवानी अपने लक्ष्य पर अडिग रहती हैं और वो हर तरह के दबाव का सामना करते हुए आगे बढ़ती हैं। भवानी देवी न सिर्फ़ अपने खेल में आगे हैं बल्कि पढ़ाई के मामले में भी काफ़ी अच्छी रही हैं। खेल के साथ-साथ उन्होंने MBA किया है। वो हमेशा अनुशासन और लगन के साथ अपना काम करती रहीं। 27 साल की भवानी देवी ने हाल ही में एक और ख़िताब अपने नाम किया है वो पहली भारतीय तलवारबाज़ हैं जिन्होंने ओलम्पिक में क्वालिफ़ाई किया है जो भविष्य में टोक्यो में होने वाला है। विश्व में फेंसिंग खेल में भवानी देवी का नाम 45 वें स्थान पर आता है। छोटी सी उम्र में बड़ा कारनामा करने वाली भवनय देवी। को हमारा सलाम है अभी तो न जाने कितने ख़िताब वो अपने नाम करेंगी।

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अंटार्कटिक की यात्रा करने वाली पहली भारतीय महिला- डॉक्टर अदिति पंत

आज हम जिस महिला की बात करने वाले हैं वो हैं ओशियनो-ग्राफ़र यानी कि समुद्र विज्ञानी डॉक्टर अदिति पंत। अदिति पंत ने एक इतिहास अपने नाम किया है, वो हैं दुनिया के एक अलग ही छोर को छूने वाली यानी कि अंटार्कटिक की यात्रा करने वाली पहली भारतीय महिला। यहाँ पहुँचने का सफ़र और ये करियर चुनने की यात्रा भी दिलचस्प है। यूँ तो इस तरह की उपलब्धि के लिए कई तरह की पढ़ाई करनी होती है और बहुत ध्यान से इसे पूरा करना होता है लेकिन अदिति को इस पढ़ाई की प्रेरणा मिली एक पुस्तक से ही।

नागपुर में जन्मी अदिति ने अपनी पढ़ाई की शुरुआत भी पुणे से ही की और हमेशा अच्छे नम्बर लाकर पास भी होती रहीं। एक रोज़ उनके हाथ में एलिस्टर हार्डी की किताब “द ओपन सी” लगी। इस किताब को पढ़ते हुए अदिति पंत को सागर की एक अलग ही दुनिया नज़र आयी और उन्हें ये भी पता चला कि समुद्री विज्ञान ही उनका विषय है और वो इसी क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहती हैं।

एक बार जब अदिति ने समुद्री विज्ञानी बनने का निश्चय कर लिया उनके इस निश्चय को हौसला मिला जब हवाई विश्वविद्यालय में उन्हें मरीन साइयन्स यानी समुद्री विज्ञान विषय में मास्टर डिग्री हासिल करने के लिए स्कालर्शिप मिली। आगे अदिति पंत ने लंदन के विश्वविद्यालय से PhD की विषय था “समुद्री शैवालों के शारीरिक क्रिया विज्ञान”

जिस समय अदिति पंत ये काम कर रही थीं वो एक ऐसा दौर था जब महिलाओं की शिक्षा का स्तर इस हद तक भी नहीं सुधरा था। ऐसे समय में डॉक्टर अदिति पंत ने ये साबित किया कि अगर महिलाएँ अंतरिक्ष में अपने क़दम रख सकती हैं तो समुद्र की गहराइयों में भी अपना परचम लहरा सकती हैं। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद डॉक्टर अदिति गोवा में ‘राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान’ में शामिल होने के लिए भारत लौट आयीं यहाँ उन्होंने तटों का निरीक्षण किया। डॉक्टर अदिति ने पूरे भारतीय पश्चिमी तटों की यात्रा की है। राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला और महाराष्ट्र विज्ञान अकादमी जैसे संस्थानों से भी जुड़ चुकी हैं।

डॉक्टर अदिति पंत पहली भारतीय महिला हैं जो 1983 में ऐंटार्क्टिक क्षेत्र के तीसरे खोजी अभियान का हिस्सा बनीं। उन्होंने भारतीय एंटार्कटिक योजना का हिस्सा बनकर काम किया। कई दुर्गम और विपरीत जलवायु परिस्थितियों का सामना करते हुए डॉक्टर अदिति ने उस महाद्वीप का चार महीने तक विश्लेषण किया और कई अद्भुत खोजों को बाहर लाने में सक्षम रहीं।

इस खोज का हिस्सा बनने के लिए डॉक्टर अदिति पंत को एंटार्कटिक पुरस्कार से नवाज़ा गया। इस पुरस्कार में उनकी सहायक महिलाएँ भी भागीदार बनीं उन्हें भी इस पुरस्कार का हिस्सा बनाया गया। उन महिलाओं के नाम भी हम यहाँ बता देते हैं उनके नाम हैं सुदीप्ता सेन गुप्ता, जया नैथानी और कँवल विल्कू। डॉक्टर अदिति पंत ने ये साबित कर दिया कि एक महिला चाहे तो आसमान की ऊँचाइयों को छू सकती है और चाहे तो किसी सागर की धीरता को धरकर उसके अंदर से ख़ज़ाने तलाश सकती है।

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14 साल की उम्र में अंग्रेज़ो को नाकों चने चबवाने वाली सबसे कम उम्र की महिला क्रांतिकारी

Suniti Chaudhary Woman Freedom Fighter

Suniti Chaudhary Woman Freedom Fighter  भारत की सबसे कम उम्र की क्रांतिकारी महिला के रूप में जानी जाने वाली सुनीति चौधरी का जन्म 22 मई 1917 को बंगाल के टिप्पेरा के कोमिला सब डिविज़न में हुआ था। वो एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी थीं लेकिन उनके मन में स्वराज्य के प्रति अलग हाई प्रेम हुआ करता था।जब वो बालिका उच्च विद्यालय में थीं तब वो अपनी सीनियर प्रफुल्ल नंदिनी ब्रह्मा से मिली जो कि एक क्रांतिकारी थीं और अंग्रेज़ी हुकूमत से लोहा लेने के लिए तत्पर रहती थीं। उन्होंने सुनिती चौधरी को कई ऐसी किताबें पढ़ने के लिए दीं जो उस समय अंग्रेज़ी हुकूमत की तरफ़ से प्रतिबंधित थी। यहीं सुनिती चौधरी ने कुछ ऐसा पढ़ा जिसने उनका विचार बदल दिया। ये कथन था स्वामी विवेकानंद का लिखा हुआ “जीवन अपनी मातृभूमि के लिए त्याग का नाम है”

वो दौर था जब अंग्रेज़ी हुकूमत लोगों पर ज़ुल्म ढाया करती थी किसी को भी किसी बात की आज़ादी नहीं थी। ऐसे में जब क्रांतिकारी नारे लगाते निकलते थे तो पुलिस की ओर से भी उन्हें प्रताड़ित किया जाता था ऐसे हालात देखकर 14 साल की उम्र में ही सुनिती चौधरी के मन में देश की आज़ादी की भावनाएँ प्रबल होने लगी थीं। सुनिती खुलकर आंदोलनों में भाग लेने लगीं। यही नहीं सुनिती चौधरी लड़कियों की परेड का नेतृत्व किया करती थीं।

क्रांतिकारियों में महिलाओं के लिए मुख्य कार्य हुआ करते थे कि उन्हें ज़रूरी सूचना, काग़ज़ात, हथियार और पैसे अलग- अलग जगह सुरक्षित पहुँचाने का काम दिया जाता था। ये ज़िम्मेदारी भी सभी को नहीं मिलती थी बल्कि सबसे बहादुर और चालाक युवतियीं को ही सौंपी जाती थी। ऐसे में उन सभी युवतियों को ख़ंजर और लाठी चलाना भी सिखाया जाता था। वो सुनिती चौधरी ही थीं जिन्होंने क्रांति के लिए लड़कियों को लड़कों के बराबर ज़िम्मेदारी दिए जाने की माँग की थी। उनका कहना था कि अगर उन्हें वास्तविक लड़ाई में आने ही नहीं मिलेगा तो उनके ख़ंजर और लाठी चलाने के प्रशिक्षण का क्या महत्व है। Suniti Chaudhary Woman Freedom Fighter

उनके इस सवाल ने

वाक़ई बदलाव का संकेत दिया और आख़िर उस वक़्त के बड़े स्वतंत्रता सेनानी ने लड़कियों का गुप्त साक्षात्कार लेकर सुनिती चौधरी और उनकी दो अनय साथियों प्रफुल्ल नंदिनी और शांतिसुधा घोष को ख़ास ट्रेनिंग दी। जिसके लिए तीनों ने स्कूल छोड़कर परवात पर गोलियाँ चलाने का अभ्यास शुरू कर दिया। सुनिती ने अपनी मध्यमा ऊँगली का प्रयोग करके रिवॉल्वार का इस्तेमाल शुरू किया क्योंकि उनकी अनामिका ट्रिगर तक पहुँचती ही नहीं थी।

आख़िर उन्होंने मात्र 14 बरस की उम्र में ही अंग्रेज़ी हुकूमत के एक बड़े अधिकारी पर उसी की ऑफ़िस में हमला बोल दिया और लगातार गोलियाँ चलती रहीं। वो अपनी साथियों के साथ पकड़ी गयीं लेकिन उन्हें इस बात का मलाल नहीं था। उन्होंने ख़ुद पर लगे अपराध को स्वीकार किया लेकिन जब उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गयी तो उन्हें ये कहते सुना गया कि किसी अस्तबल में रहने से अच्छा है मौत को गले लगाना। उन्हें इस बात का दुःख था कि उन्हें शहीद होने का मौक़ा नहीं मिल रहा।

जेल में बिताए दिन उनके लिए यातना से भरे रहे लेकिन उन्होंने प्रशिक्षण के दौरान ही ख़ुद को दर्द सहने के लिए तैयार किया था। उन्होंने अपने साथियों को लेकर कुछ न बताया। उन्हें कई तरह के दुःख मिले और उनके परिवार के लिए भी परेशनियाँ आयीं लेकिन सुनिती चौधरी ने ख़ुद को देश के लिए समर्पित कर दिया था उनके सामने ये बातें मायने नहीं रखती थीं। आख़िर जब सुनिती 22 साल की हो गयीं तब उनकी सज़ा को माफ़ी वार्ता के कारण ख़त्म कर दिया गया।

यूँ तो सुनिती चौधरी आंदोलन के काम में इस तरह जुटी रहती थीं कि उन्होंने औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी लेकिन जेल से बाहर आने के बाद भी वो चुप नहीं बैठीं उन्होंने पढ़ाई शुरू की और 1944 में MBBS करना शुरू किया और वो डॉक्टर भी बन गयीं। उन्हें लोग प्यार से ‘लेडी माँ’ कहकर बुलाया करते थे। सुनिती चौधरी ने न सिर्फ़ देश के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाया बल्कि वो परिवार के प्रति भी समर्पित रहीं उन्होंने अपने माता-पिता और बच्चों की ओर अपने कर्तव्य निभाए। देशप्रेम से भरी सुनिती कहुधरी ने 12 जनवरी 1988 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

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